Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद


8.

जिस भाँति सूर्यास्त के पीछे विशेष प्रकार के जीवधारी; जो न पशु हैं न पक्षी, जीविका की खोज में निकल पड़ते हैं, अपनी लंबी श्रेणियों से आकाश मंडल को आच्छादित कर लेते हैं, उसी भाँति कार्तिक का आरम्भ होते ही एक अन्य प्रकार के जन्तु देहातों में निकल पड़ते हैं और अपने खेमों तथा छोलदारियों से समस्त ग्राम-मण्डल को उज्जवल कर देते हैं। वर्षा के आदि में राजसिक कीट और पतंग का उद्भव होता है, उसके अन्त में तामसिक कीट और पतंग का। उनका उत्थान होते ही देहातों में भूकम्प-सा आ जाता है और लोग भय से प्राण छिपाने लगते हैं।

इसमें सन्देह नहीं कि अधिकारियों के यह दौरे सदिच्छाओं से प्रेरित होकर होते हैं। उनका अभिप्राय है जनता की वास्तविक दशा का ज्ञान प्राप्त करना, न्यायप्रार्थी के द्वार तक पहुँचना, प्रजा के दुःखों को सुनना, उनकी आवश्यकताओं को देखना, उनके कष्टों का अनुमान करना, उनके विचारों से परिचित होना। यदि यह अर्थ सिद्ध होते तो यह दौरे बसन्तकाल से भी अधिक प्राण-पोषक होते, लोग वीणा, पखावज से, ढोल-मजीरे से उनका अभिवादन करते किन्तु जिस भाँति प्रकाश की रश्मियाँ पानी में वक्रगामी हो जाती हैं, उसी भाँति सदिच्छाएँ भी बहुधा मानवीय दुर्बलताओं के सम्पर्क से विषम हो जाया करती हैं। सत्य और न्याय पैरों के नीचे आ जाता है, लोभ और स्वार्थ की विजय हो जाती है! अधिकारी वर्ग और उनके कर्मचारी विरहिणी की भाँति इस सुख काल के दिन गिना करते हैं। शहरों में तो उनकी दाल नहीं गलती, या गलती है तो बहुत कम! वहाँ प्रत्येक वस्तु के लिए उन्हें जेब में हाथ डालना पड़ता है, किन्तु देहातों में जेब की जगह उनका हाथ अपने सोंटे पर होते या किसी दीन किसान की गर्दन पर! जिस घी, दूध, शाक-भाजी, मांस-मछली आदि के लिए शहर में तरसते थे, जिनका स्वप्न में भी दर्शन नहीं होता था, उन पदार्थों की यहाँ केवल जिह्वा और बाहु के बल से रेल-पेल हो जाती है। जितना खा सकते हैं, खाते हैं, बार-बार खाते हैं, और जो नहीं खा सकते, वह घर भेजते हैं। घी से भरे हुए कनस्तर, दूध से भरे हुए मटके, उपले और लकड़ी घास और चारे से लदी हुई गाड़ियाँ शहरों में आने लगती हैं। घरवाले हर्ष से फूले नहीं समाते, अपने भाग्य को सराहते हैं, क्योंकि अब दुःख के दिन गये और सुख के दिन आये। उनकी तरी वर्षा के पीछे आती है, वह खुश्की में तरी का आनन्द उठाते हैं। देहातवालों के लिए वह बड़े संकट के दिन होते हैं, उनकी शामत आ जाती है, मार खाते हैं, बेगार में पकड़े जाते है; दासत्व के दारुण निर्दय आघातों से आत्मा का भी ह्रास हो जाता है।

अगहन का महीना था, साँझ हो गयी थी। कादिर खाँ के द्वार पर अलाव लगी हुयी थी। कई आदमी उसके इर्द-गिर्द बैठे हुए बातें कर रहे थे। कादिर ने बाजार के तम्बाकू की निन्दा की, दुखरन भगत ने उनका अनुमोदन किया। इसके बाद डपटसिंह पर्थर और बेलन के कोल्हुओं के गुण-दोष की विवेचना करने लगे, अन्त में लोहे ने पत्थर पर विजय पायी।

दुखरन बोले– आजकल रात को मटर में सियार और हरिन बड़ा उपद्रव मचाते हैं। जाड़े के मारे उठा नहीं जाता।

कादिर– अब की ठण्डी पड़ेगी। दिन को पछुआ चलता है। मेरे पास तो कोई कम्बल भी नहीं, वही एक दोहर लपेटे रहता हूँ। पुवाल न हो गया होता तो रात को अकड़ जाता।

डपट– यहाँ किसके पास कम्बल है। उसी एक पुराने धुस्से की भुगुत है। लकड़ी भी इतनी नहीं मिलती कि रात भर तापें।

मनोहर– अब की बेटी के ब्याह में इमली का पेड़ कटवाया था। क्या सब जल गयी?

डपट– नहीं बची तो बहुत थी, पर कल डिप्टी ज्वालासिंह के लश्कर में चली गयी। खाँ साहब से कितना कहा कि इसे मत ले जाइए, पर उनकी बला सुनती है। चपरासियों को ढेर दिखा दिया। बात की बात में सारी लकड़ी उठ गयी?

मनोहर– तुमने चपरासियों से कुछ कहा नहीं?

डपट– क्या कहता, दस-पाँच मन लकड़ी के पीछे अपनी जान साँसत में डालता! गालियाँ खाता, लश्कर में पकड़ा जाता, मार पड़ती ऊपर से, तब तुम भी पास न फटकते। दोनों लड़के और झपट तो गरम हो पड़े थे, लेकिन मैंने उन्हें डाँट दिया। जबरदस्त का ठेंगा सिर पर।

कादिर– हाकिमों का दौर क्या है, हमारी मौत है! बकरीद में कुर्बानी के लिए जो बकरा पाल रखा था, वह कल लश्कर में पकड़ा गया। रब्बी बूचड़ पाँच रुपये नगद देता था, मगर मैंने न दिया था। इस बखत सात से कम का माल न था।

मनोहर– यह लोग बड़ा अन्धेर मचाते हैं। आते हैं इंतजाम करने, इन्साफ करने; लेकिन हमारे गले पर छुरी चलाते हैं। इससे कहीं अच्छी तो यही था कि दौरे बन्द हो जाते। यही न होता कि मुकदमे वालों को सदर जाना पड़ता, इस साँसत से तो जान बचती।

कादिर– इसमें हाकिमों का कसूर नहीं। यह सब उनके लश्करवालों की धाँधली है। वही सब हाकिमों को भी बदनाम कर देते हैं।

मनोहर– कैसी बातें कहते हो दादा? यह सब मिलीभगत है। हाकिम का इशारा न होता तो मजाल है कि कोई लश्करी परायी चीज पर हाथ डाल सके। सब कुछ हाकिमों की मर्जी से होता है और उनकी मर्जी क्यों न होगी? सेंत का माल किसको बुरा लगता है?

डपट– ठीक बात है। जिसकी जितनी आमद होती है वह उतना ही और मुँह फैलाता है।

दुखरन– परमात्मा यह अन्धेर देखते हैं, और कोई जतन नहीं करते। देखें बिसेसर साह को अबकी कितनी घटी आती है।

डपट– परसाल तो पूरे तीन सौ की चपत पड़ी थी। वही अबकी समझो, अगर जिन्स ही तक रहे तो इतना घाटा न पड़े, मगर यहाँ तो इलायची, कत्था, सुपारी, मेवा और मिश्री सभी कुछ चाहिए और सब टके सेर। लोग खाने के इतने शौकीन बनते हैं, पर यह नहीं होता कि वे सब चीजें अपने साथ रखें।

मनोहर– शहर में खरे दाम लगते हैं, यहाँ जी में आया दिया न दिया।

कादिर– कल लश्कर का एक चपरासी बिसेसर के यहाँ साबूदाना माँग रहा था। बिसेसर हाथ जोड़ता था, पैरों पड़ता था कि मेरे यहाँ नहीं है, लेकिन चपरासी एक न सुनता था, कहता था जहाँ से चाहो मुझे लाकर दो। गालियाँ देता था, डण्डा दिखाता था। बारे बलराज पहुँच गया। जब वह कड़ा पड़ा तो चपरासी मियाँ नरम पड़े, और भुनभुनाते चले गये ।

दुखरन– बिसेसर की एक मरम्मत हो जाती तो अच्छा होता। गाँव भर का गला मरोड़ता है, यह उसकी सजा है।

डपट– और हम-तुम किसका गला मरोड़ते हैं?

मनोहर ने चिन्तित भाव से कहा– बलराज अब सराकीर आदमियों के मुँह आने लगा। कितना समझा के हार गया मानता नहीं।

कादिर– यह उमिर ही ऐसी होती है।

यही बातें हो रही थीं कि एक बटोही आकर अलाव के पास खड़ा हो गया। उसके पीछे-पीछे एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई आयी और अलाव से दूर सिर झुकाकर बैठ गयी।

कादिर ने पूछा– कहो भाई, कहाँ घर है?

घर तो देवरी पार, अपनी बुढ़िया माता को लिये अस्पताल जाता था। मगर वह जो सड़क के किनारे बगीचे में डिप्टी साहब का लश्कर उतरा है, वहाँ पहुँचा तो चपरासी ने गाड़ी रोक ली और हमारे कपड़े-लत्ते फेंक-फाँक कर लकड़ी लादने लगे, कितनी अरज-बिनती की, बुढ़िया बीमार है, रातभर का चला हूँ, आज अस्पताल नहीं पहुँचा तो कल न जाने इसका क्या हाल हो! मगर कौन सुनता है? मैं रोता ही रहा, वहाँ गाड़ी लद गयी! तब मुझसे कहने लगे, गाड़ी हाँक। क्या करूँ अब गाड़ी हाँक सदर जा रहा हूँ। बैल और गाड़ी उनके भरोसे छोड़कर आया हूँ जब लकड़ी पहुँचा के लौटूँगा तब अस्पताल जाऊँगा। तुम लोगों को हो सके तो बुढ़िया के लिए खटिया दे दो और कहीं पड़ रहने का ठिकाना बता दो। इतना पुण्य करो, मैं बड़ी विपत्तियों में हूँ।

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2 Comments

Shnaya

15-Apr-2022 01:47 AM

बहुत खूब

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Gunjan Kamal

14-Apr-2022 10:26 PM

Very nice

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